अंकल लाये कपड़े की गेंद और मोंगरी 

…तो दफन है बालिका छात्रावास की दर्दनाक हकीकत’

शहडोल। भइया के साथ एक बार मैं स्कूलों की जांच मे गया, मध्यावकाश का समय था बच्चे खेल रहे थे, हम स्कूल कैम्पस में ही थे कि एक आवाज सुनाई दी, अंकल जरा देखा गेंद लत्तो (कपडे) की बनी थी। मैने क्रिकेट बैट भी देखा, जो चपटी लकडी का डण्डा था। मैने बच्चे पूछा कहाँ से मिला, तो बोला अंकल लाये है। दूसरे बच्चे ने कहा अकल बैट-बैट कुछ नही, कपड़ा धोने की मोगरी है, कोई श्रवण गेंद फेंकना। मैने झुक कर गेंद उठाई, गुरू जी बोरा नहीं ले रहे थे, फिर बहुत झगड़ा हुआ। किसी ने फोटो निकाल ली, अंकल बोरा पटका और स्कूटी स्टार्ट करके जल्दी से भाग लिए।
उनका चेहरा गुस्से से लाल था, कही हमे पीट न दे, इसलिए हम लोग उस समय बोरा स्कूल उठा लाए, गुरुजी उस दिन स्कूल से भाग गए थे। बाद मे भइया ने मुझे गणित समझाया।
भइया ने बताया कि मेरे विधान सभा कोतमा में देखो, खेल सामग्री पटी पड़ी है। बड़े-बड़े टूर्नामेन्ट हो रहे है। मेरे क्षेत्र मे ऐसे बैट है कि जब मैदान में आते है, तो इनकी चमक दूसरे गाँव तक देखी जाती है। कोतमा विधान सभा में हजारो क्रिकेट किट, सैकडो फुटवाल, तो मेने इसी साल बाटी है। दर्शक एवं खिलाड़ी तंदुरूस्त रहें इसके लिए भंडारा करके, पूड़ी-पुलाव भी खिलता हूँ। ये अलग बात है कि खिलाडी यदा-कदा ही अबकी बारी सेमरा वाले भइया की बारी के नारे लगाते है। अब मुसकुराने की बारी मेरी थी, मैं समझ गया,स्कूलों की खेल सामग्री के साथ खेल खेलने वाला कोई और नहीं, भइया ही थे। बेचारे गुप्ता तो बोरा ढोने वाले मजदूर थे। इन्हे स्कूलों में खेल सामग्री पहुंचाने के लिए बेवजह ही बदनाम किया गया।
एक बार कस्तूरबा गांधी बालिका छात्रावास के निरीक्षण में भी जाने की है। यहां बार्डेन थी, 4 बजे थे, नास्ते का समय था। बालिकाए गई थी और कागज की पुडिया मे लाई मुर्रा चबा रही थी। मैने पहले डिस्प्ले बोर्ड में नास्ते का समय, फिर भइया की तरफ देखा, भइया समझ गए, हल्का सा मुस्कुराये भइया ने मुझे समझाया। बोले लाई मुर्रा बहुत हाईजीनिक होता है। इसे चबाने में समय लगता है। इससे मुंह में लार अधिक बनने से भूख बढ़ती है। बार्डन ने धीरे से मेरे कान में कहा, लाई मुर्रा का यह राज उन्होंने ही, भइया को समझाया थी।
समझाते ही भइया ने लाई मुर्रा को शाम का नास्ता घोषित कर दिया है। सभी छात्रावासो मे शाम को यही चलता है। बात करते देख भइया मेरी तरफ मुड़े, कुछ बकते इसके पहले मैने समझ गया, समझ गया के इसारे वाला सिर हिला दिया। भइया मुस्कुराये।
भइया ने अचानक कहा, एकांत। मैं कुछ समझा नही सेवक मेरा हाथ पकड़ कर, लगभग घसीटते हुए बोला बाबू चलो, छात्रावास दिखता हूँ। मैं चल पड़ा। सेवक ने, मौका देख धीरे से बताया। साहब पिछले माह लाई-मुर्रा खा कर दो जने टपक गई। मैने पूछा, टपक गई मतलब कहाँ गई। सेवक बोला सीधे ऊपर,और कहां। ज्ञात हो कि इस छात्रावास की दो छात्राए बेटी कुशिल्पा एवं प्रीति का असमायिक निधन  जनवरी 2017 एवं 28 जनवरी को हो गया था। मैने कहा लाई-मुर्रा से टपकी, इसका क्या प्रमाण है। सेवक बोला साहब लाई मुर्रा खा-खा कर, आँते चिपक गई, पेट पिचक गया, लगने लगे दस्त, तबियत हो गई पस्त, शरीर हो गया लस्त, बस टप्प से टपक गई। ये तो गरीब घरो से आती है, इसलिए कुछ झेल जाती है। गरीब की हैं गाय, जो मिल जाए खाय। नखरे किए तो चलता है बडी मिस (वार्डेन) का फण्डा। पंगा लेने वाली को पड़ता है डंडा, दिमाग हो है जाता है ठण्डा। मैने कहा बकवास मत कर प्रमाण बता, तो सेवक एक मेडिकल रिपोर्ट उठा लाया, रिपोर्ट किसी डॉ. की थी, इसमें 23.01.2017 की तारीख पड़ी थी। इसमे कुशिल्पा का नाम था, दस्त की शिकायत थी। प्रीति का नाम इस रिपार्ट मे नहीं मिला, तो मैने सेवक की तरफ देखा। सेवक 26 अगस्त 2018 की एसडीएम जॉच रिपोर्ट उठा लाया, जिसमे डॉ. पटेल के हवाले से लिखा गया था, स्पष्ट था कि मैं इनके घर मे  संक्रमण छात्रावास की जगह इनके होने की संभवना से, घर वालों को दोषी माना गया। छात्राओ के अवकाश अवधि मृत्यु के लिए घर वालों को दोषी ठहरा कर भइया ने प्रकरण को रफा-दफा कर दिया।
मैने मेडिकल रिपोर्ट के दो पन्ने देखे जिसमे 35 नाम दर्ज थे, जिसमे से 14 छात्राओं को पेट दर्द एवं उल्टी की बीमारी थी। इस पन्ने मे दर्ज भी छात्रा स्वस्थ नही थी 35 में से 14 छात्राओं को पेट दर्द एवं उल्टी की बीमारी के लिए छात्रावास प्रबंधन दोषी था या इनके घर वाले मेरी समझ मे अब तक नहीं आया। मेरे लिए इन दोनो छात्राओ के असमयिक निधन के लिए छात्रावास प्रबंधन एवं इसके संरक्षक मुन्ना भइया को दोष मुक्त मानना असम्भव हो गया। कहते है सच डरावना होता है, मेरे सामने आज ऐसा ही एक डरावना सच खडा था, जिसका सामना करने की मुझमे हिम्मत नहीं थी। आत्म ग्लानि के भाव मेरे चेहरे से साफ झलक रहे थे। सेवक मेरा चेहरा ध्यान से देख रहा था, जो पीला पड़ चुका था। सेवक बोला क्या हुआ बाबू कुछ और कागज लाऊ। मैने नजरे नीची कर ली, ऐसा लगा इसमे भइया के साथ मै भी कुछ हद तक दोषी हूँ मॉ- बाप ने अपने कलेजे के टुकडो को पढने, कुछ बनने की आसा से छात्रावास भेजा था। पता होता छात्रावास निगल जाएगा तो कभी नहीं भेजते। मुझे आज भी लगता है कि जिस छात्रावास को चलाने के लिए सरकार एक साल मे 70 लाख से अधिक रूपये खर्च करती है। 350 रू प्रति छात्रा के मान से 200 छात्राओं के लिए कुल 70 हजार रूपये इलाज के लिए देती है और खर्च भी होते है। इनमे से यदि 700 रू भी शिल्पा और प्रीती के इलाज मे खर्च कर दिए जाते तो ये छात्राए आज हमारे बीच जीवित होती कौन दोषी, कौन नहीं यह आप ही तय करे, मै भइया को कुछ नहीं कह सकता। यद्यपि भइया सच जानते है, ऐसी मुझे उम्मीद है। मामला चाहे जो हो, लेकिन भइया के कार्यकाल की निष्पक्ष जांच जब तक नहीं होती, ऐसे कई सवाल सामने आते रहेंगे, प्रशासन का खुद चाहिए कि पूरे मामलों में राजधानी से दल गठित कर जांच करानी चाहिए और भइया अगर दोषी नहीं है तो, बिन्दुवार अपने जनसंपर्क के माध्यम से सबको अवगत कराना चाहिए, इसके अलावा अगर भइया खुद भी चाह ले तो, न्यायालय में निवेदन कर अपने कार्यकाल की जांच के लिए कह सकते हैं।
बाकी-भूल-चूक, लेनी-देनी भईया से ज्यादा कोई नहीं जानता।

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